संपादकीय

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ब्रह्मचारी गिरीश
संरक्षक संपादक

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'मुझे किसलिए याद किया जाएगा?' यह जीवन का वह बिंदु है, जहाँ हम अपने भविष्य को लेकर चिंतित नहीं होते, बल्कि अपने निजी जीवन में नई स्वतंत्रता का स्वप्न देखते हैं। कभी-कभी तो सेवानिवृत्ति की स्वतंत्रता में हम पहली बार जीवन के वास्तविक लक्ष्य को देख पाते हैं। लक्ष्य की हमारी भावना स्वाभाविक रूप से जीवन भर विकसित होती रहती है, किंतु हमारा अर्न्तमन शीघ्र से शीघ्र एक बुनियादी लक्ष्य की खोज में बेचैन रहता है और जब यह उसे मिल जाता है, तो इसे समुचित रूप से विस्तार देता है। अत: अपने वास्तविक लक्ष्य की खोज के लिए हमें इस बात को ध्यान में रखकर आध्यात्मिक स्पष्टता प्राप्त करनी चाहिए कि हम कौन हैं? इन समस्त प्रश्नों के उत्तर गुरु ही दे सकते हैं।


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'गुरु और शिष्य का एकाकार'

क्या आपके अपने भीतर जीवन को सम्पूर्णता से समझने की ललक अनुभव करते हैं? ....शायद आप स्वयं से पूछा करते होंगे, हम यहाँ क्यों हैं? आखिर जीवन में यह चल क्या रहा है? इन प्रश्नों के सहारे आप जीवन को उसकी व्यापकता में समझने का प्रयास करते हैं। याद रखें, प्रत्येक पीढ़ी एक वैश्विक वास्तविकता, युगचेतना के बीच उत्पन्न होती है। किंतु इतिहास बताता है कि मानव-यथार्थ समय के साथ आगे बढ़ता है। जब हम अपनी आत्मा के लक्ष्य को पा लेते हैं, अर्थात् जो हमारा है, वह दूसरों को देने के लिए है, तब हम मनुष्यता के विकास में सजग रूप से जुटते हैं। हम सब विभिन्न चरणों से गुजरते हैं। इन चरणों को समझने पर ही हमें मालूम होता है कि किस समय हम कहाँ थे? जैसे, हमारे जीवन में जब तीस का मुख्य पड़ाव आता है, तो उस मोड़ पर हम यही अनुभव करते हैं कि 'जितना हम सोचते थे, मानव अर्थव्यवस्था तो उससे कहीं अधिक जटिल है। इसलिए एक ऐसा काम ढूँढ़ना होगा, जिससे अधिक धन कमाया जा सके। भले ही, वह ठीक वैसा काम न हो, जैसा हम चाहते हैं।' इस पड़ाव पर प्रत्येक नई पीढ़ी यह अनुभव करती है कि मानव समाज में बहुत कुछ गलत है, जिसे सुधारने की आवश्यकता है। यह यथार्थवादी चरण हमारे लक्ष्य का निर्धारक प्रारंभिक कदम होता है। अत: हम एक प्रेरणाप्रद पूर्ण जीवन खोजने लगते हैं। जब हम अपने छठे दशक में प्रवेश होते हैं, जो अनेक लोगों के लिए अंतिम चरण में प्रवेश करना होता है, तब हम स्वयं से पूछते हैं, 'मुझे किसलिए याद किया जाएगा'' यह जीवन का वह बिंदु है, जहाँ हम अपने भविष्य को लेकर चिंतित नहीं होते, बल्कि अपने निजी जीवन में नई स्वतंत्रता का स्वप्न देखते हैं। कभी-कभी तो सेवानिवृत्ति की स्वतंत्रता में हम पहली बार जीवन के वास्तविक लक्ष्य को देख पाते हैं। लक्ष्य की हमारी भावना स्वाभाविक रूप से जीवन भर विकसित होती रहती है, किंतु हमारा अर्न्तमन शीघ्र से शीघ्र एक बुनियादी लक्ष्य की खोज में बेचैन रहता है और जब यह उसे मिल जाता है, तो इसे समुचित रूप से विस्तार देता है। अत: अपने वास्तविक लक्ष्य की खोज के लिए हमें इस बात को ध्यान में रखकर आध्यात्मिक स्पष्टता प्राप्त करनी चाहिए कि हम कौन हैं? इन समस्त प्रश्नों के उत्तर गुरु ही दे सकते हैं। राजा जनक ने महर्षि अष्टावक्र के समक्ष जो जिज्ञासा रखी, ज्ञान प्राप्ति का क्या उपाय है? मुक्ति किस प्रकार होगी? वैराग्य कैसे प्राप्त होता है? जनक द्वारा पूछे गये गूढ़ प्रश्नों के उत्तर 'अष्टावक्र गीता' में हैं। यह अद्वैत वेदांत का ग्रंथ है। इसमें ज्ञान, वैराग्य, मुक्ति और योगी की दशा का वर्णन है। इसके अनुसार, मनुष्य को विषयजनित आसक्तियों, यथा-द्वेष, मोह, अहंकार, लोभ, क्रोध को त्यागकर उदारचरित्त, दयावान, सत्यभाषी बनना चाहिए। महर्षि अष्टावक्र आत्मा को महत्व देते हैं। मुक्ति खोजी नहीं जाती, यह आत्मा की सहज प्रवृत्ति है। मुक्ति के आकांक्षी को आंतरिक चैतन्य को जानकर बाहरी आवरणों से विरक्त होना पड़ता है। ज्ञान का अर्थ है सद और असद का विवेक। परम ज्ञान है सद को ग्रहण कर असद का त्याग करना, तत्पश्चात त्याग की स्मृति का त्याग कर देना। आत्मज्ञान ही परम ज्ञान है। आत्मज्ञान को प्राप्त करने का उपाय स्वयं को कर्ता भाव से मुक्त करना अर्थात् ''मैं'' का अंत कर ईश्वर की 'कृपा' को स्वीकार कर लेना है। आत्मज्ञानी में कोई आकांक्षा नहीं रहती। वह कभी पीड़ित या कुंठित नहीं होता। वह प्रवृत्ति में प्रवृत्त होकर भी निवृत्ति का आनंद लेता है, क्योंकि उसकी चित्त वृत्तियाँ शांत होती हैं। उसमें राग-द्वेष की भावना नहीं होती है। आत्मज्ञानी में द्वैत का कोई स्थान नहीं होता। अष्टावक्र के अनुसार, संसार में सर्वत्र एक ही आत्मा विद्यमान है। द्वैत भाव से वैराग्य प्राप्त नहीं होता। अष्टावक्र की गीता का सार तत्व साक्षी भाव है। यदि संसार के प्रत्येक कार्य को मनुष्य साक्षी भाव से देखे तो वह न तो मोहग्रस्त होगा और न ही बंधनयुक्त। यही ज्ञान की प्राप्ति है। अंत में महर्षि अष्टावक्र जानना चाहते थे, उन्होंने जो उपदेश दिया है, जनक को उसका विस्मरण तो नहीं हो गया। जनक ने गुरु प्रदत्त ज्ञान पुन: प्रस्तुत कर कहा कि मैं निरंजन स्वरूप हो गया हूँ। पंचमहाभूतों से मुक्त मनविहीन, शून्य और आशाओं-निराशाओं से पूर्ण मुक्त हो गया हूँ। यही है गुरु-शिष्य का एकाकार हो जाना। इस ऐकाकार से आपका जीवन आनंदित एवं आपका मार्ग परमानंद की ओर अग्रेषित हो जायेगा। इसी एकाकार को साकार बनाने के लिये परम पूज्य महर्षि महेश योगी जी ने ''भावातीत-ध्यान'' को प्रतिपादित किया। जिसका हमें प्रतिदिन प्रात: एवं संध्या को 15 से 20 मिनट का भावातीत का अभ्यास अवश्य करना चाहिए। भावातीत ध्यान के नियमित अभ्यास से जीवन आशाओं एवं निराशाओं से मुक्त हो जाता है।



।।जय गुरूदेव जय महर्षि।।