संपादकीय
ब्रह्मचारी गिरीश
संरक्षक संपादक
ऐसे अनेक अवसर हमारे भी जीवन में आते हैं किंतु हम भी दुर्योधन के समान भगवान की कृपा न माँगकर भौतिक जीवन में उन्नति माँग कर भूल कर बैठते हैं। ध्यान रखिये किस प्रकार छलपूर्वक अभिमन्यु का विश्व के सर्वश्रेष्ठ महारथियों ने धोखे से वध किया था किंतु वह युद्ध न जीत सके। ठीक उसी प्रकार हम सभी अपने जीवन में यह अनुभव करते हैं कि कुछ लोग यदि हमसे छल न करते तो हम भी और प्रगति कर लेते किंतु प्रभु की कृपा से बढ़कर कोई प्रगति नहीं है। आप देखिये जिन्होंने आपको धोखा दिया, उनका जीवन भौतिक रूप से तो सम्पन्न होगा। परन्तु उनके जीवन में सुख, शांति, आनंद एवं अध्यात्म का अभाव होगा यह निश्चित है।
अर्जुन व श्रीकृष्ण के सापेक्ष का प्रत्येक जीवन पर प्रभाव पड़ता है। यदि आप स्वयं को अर्जुन मानते हैं तो आपका समर्पण अपने इष्ट के प्रति अर्जुन जैसा होना चाहिए। जब महाभारत के युद्ध में श्रीकृष्ण को आमंत्रित करने के लिए दुर्योधन श्रीकृष्ण के निवास पहुँचते हैं तो पता चलता है कि वह विश्राम कर रहे हैं तब वह उनके शयन कक्ष में ही श्रीकृष्ण के सिरहाने की ओर बैठकर उनके उठने की प्रतीक्षा करने लगते है, कुछ ही समय पश्चात अर्जुन भी श्रीकृष्ण को महाभारत में अपनी ओर से सम्मिलित होने की इच्छा रखते हुए उन्हें आमंत्रित करने के लिए श्रीकृष्ण के शयन कक्ष में चले जाते हैं। वहाँ वह दुर्योधन को श्रीकृष्ण के सिरहाने बैठा देखकर स्तब्ध हो जाते हैं। वह श्रीकृष्ण के भक्त थे अत: वह उनके चरणों की ओर बैठकर उनके जागने की प्रतीक्षा करने लगे। कुछ समय पश्चात जब वासुदेव श्रीकृष्ण जागे तो उनकी प्रथम दृष्टि अर्जुन पर पड़ी और उन्होंने कहा हे पार्थ कैसे आना हुआ? इस पर शीघ्र ही दुर्योधन बोल उठे द्वारकाधीश मैं अर्जुन के पहले से आपके जागने की प्रतीक्षा कर रहा था। अत: आप मुझे अर्जुन से पहले युद्ध में आमंत्रित करने का अवसर प्रदान करें। श्रीकृष्ण बोले संभवत: यह सत्य है किंतु मैंने, मेरे जागने के पश्चात सर्वप्रथम अर्जुन को देखा। अत: मैं पहले अर्जुन को यह अवसर दूँगा कि वह मुझे युद्ध में आमंत्रित करे। परन्तु आप दोनों ध्यान से सुनें मैं इस युद्ध में अस्त्र, शस्त्र नहीं धारण करूँगा। आप दो लोग हैं तो एक ओर मेरी चतुरंगिणी सेना रहेगी और दूसरी ओर मैं निहत्था। इस पर शीघ्र दुर्योधन ने कहा मुझे तो आपकी सेना चाहिए। जिसका परिणाम सभी को ज्ञात है कि कौरवों की अतिविशाल सेना से पांडवों की सेना विजयी हुई क्योंकि स्वयं भगवान श्रीकृष्ण, अर्जुन का मार्ग प्रशस्त कर रहे थे। ऐसे अनेक अवसर हमारे भी जीवन में आते हैं किंतु हम भी दुर्योधन के समान भगवान की कृपा न माँगकर भौतिक जीवन में उन्नति माँग कर भूल कर बैठते हैं। ध्यान रखिये किस प्रकार छलपूर्वक अभिमन्यु का विश्व के सर्वश्रेष्ठ महारथियों ने धोखे से वध किया था किंतु वह युद्ध न जीत सके। ठीक उसी प्रकार हम सभी अपने जीवन में यह अनुभव करते हैं कि कुछ लोग यदि हमसे छल न करते तो हम भी और प्रगति कर लेते किंतु प्रभु की कृपा से बढ़कर कोई प्रगति नहीं है। आप देखिये जिन्होंने आपको धोखा दिया, उनका जीवन भौतिक रूप से तो सम्पन्न होगा। परन्तु उनके जीवन में सुख, शांति, आनंद एवं अध्यात्म का अभाव होगा यह निश्चित है। हम सभी अपनी यात्रा के एक पड़ाव के लिये यहाँ 'मृृत्युलोक' में ठहरे हैं। यह मृृत्युलोक हमारी अंतिम यात्रा के बीच का विश्राम स्थल है। गनतव्य का आदेश मिलते ही आगे बढ़ जायेंगे। बाकी सब यहीं का यहीं रह जाएगा। हमारा शरीर पंचतत्वों और पंचकोषों से बना हुआ है। अन्नमयकोष, प्राणमयकोष, मनोमयकोष, विज्ञानमय कोष एवं आनन्दमय कोष। सामान्यत: हम सभी अपने शरीर और इसके सुख की चिन्ता में अन्नमय कोष से ही जुड़े रहते हैं। अत: हमें अपने जीवन को सचिदानन्द की ओर ले जाने वाले आनन्दमय कोष से जुड़ना चाहिये क्योंकि जीवन आनन्द है आसक्ति नहीं।
।।जय गुरूदेव जय महर्षि।।