संपादकीय

chairman

ब्रह्मचारी गिरीश
संरक्षक संपादक

border

हमें स्वयं पर यह पड़ताल करनी चाहिए कि हम किसके समान संबंधों का निर्वहन करें। ऐसे में एक ही चरित्र है जो मर्यादा पुरुषोत्तम 'श्रीराम जी' का है। तुलसीदास जी ने रामचरितमानस की रचना इसलिए ही तो की जिसके श्रवण, मनन एवं अध्ययन से जन-मानस को अपने जीवन की कठिनतम परिस्थितियों में भी अपने समस्त उत्तरदायित्वों का निर्वहन करते हुए अपना जीवन आनंदित कर सकें। संबंध जीवन का दर्पण जिसमें हम स्वयं को देख सकते हैं परंतु हमें स्वयं से न्याय करना है। संबंधों के इस दर्पण में हमें हमारी सच्ची तस्वीर दिखती है किंतु हम स्वार्थ वश मात्र अपना उज्ज्वल चरित्र ही देखने का प्रयास करते हैं हम हमारी मानसिकता के आधार पर तय करना चाहते हैं। किंतु दर्पण का उद््देश्य यह है कि हमें अपने शरीर व चरित्र की नकारात्मकता को भी दिखाता है अत: उसे सुधारने का प्रयास करें।


border

संबंधों का निर्वहन

चैत्र नवरात्रि शक्ति, समर्पण, कृतज्ञता, उत्साह, भक्ति, हर्ष, उल्लास का समय है और वह भी भारतीय नव वर्ष पर, यह समय है जब प्रत्येक की स्वयं कि वर्तमान स्थिति को केंद्र में रखकर। अपने मन की नकारात्मकता को नष्ट कर भविष्य का मार्ग तय करने का सही समय एवं पौराणिक ज्ञान-विज्ञान के महत्व को भी समझना चाहिए। ऋतु परिवर्तन पर खान-पान को नियंत्रित करते हुए स्वयं को भीतर से एवं बाहर से शक्ति का अनुभव एवं संचय करने का प्रयास करना चाहिए। भारतीय सनातन संस्कृति में कुटम्ब को केंद्र में रखा गया है। समस्त कुटुम्बी सहित इस आराधना के पर्व को मनाते हैं तो पारिवारिक आत्मीयता का अनुभव होता है और साथ ही साथ किसी भी उत्सव के आनंद में उत्तरोत्तर वृद्धि हो जाती है, क्योंकि हम सामाजिक प्राणी हैं। हम समाज से अलग नहीं रह सकते अत: जीवन में संबंधों का होना आवश्यक है। जीवन-संबंध है और संबंध ही जीवन है। वर्तमान परिवेश में अनेक प्रकार की नकारात्मकता व्याप्त है इसका कारण ही जीवन में संबंधों की कमी है। जब हम परिवार में रहते हैं तो माता-पिता, दादा-दादी, भाई-बहन, चाचा-चाची, ताऊ-ताइजी इत्यादि के जीवन से हमें अपने जीवन में आने वाली घटनाओं से उभरने की सीख मिलती है। घर में ही विभिन्न विचारधाराओं के लोगों से बातचीत करना। संबंध बनाए रखना हमारे चरित्र को गड़ता है। संबंधों के बिना हम कुछ नहीं हैं। हमारे होने का प्रमाण ही संबंध है आप किसी के पुत्र हैं, किसी के पौत्र हैं, किसी के भतीजे हैं, किसी के मित्र हैं, किसी के शिष्य हैं, किसी के गुरु हैं, किसी के पिता हैं, किसी के भाई हैं इत्यादि अनेकानेक संबंधों की डोर से हमारा जीवन बँधा हुआ है जो हमें संबल प्रदान करता है। हमें स्वयं पर यह पड़ताल करनी चाहिए कि हम किसके समान संबंधों का निर्वहन करें। ऐसे में एक ही चरित्र है जो मर्यादा पुरुषोत्तम 'श्रीराम जी' का है। तुलसीदास जी ने रामचरितमानस की रचना इसलिए ही तो की जिसके श्रवण, मनन एवं अध्ययन से जन-मानस को अपने जीवन की कठिनतम परिस्थितियों में भी अपने समस्त उत्तरदायित्वों का निर्वहन करते हुए अपना जीवन आनंदित कर सकें। संबंध जीवन का दर्पण जिसमें हम स्वयं को देख सकते हैं परंतु हमें स्वयं से न्याय करना है। संबंधों के इस दर्पण में हमें हमारी सच्ची तस्वीर दिखती है किंतु हम स्वार्थ वश मात्र अपना उज्ज्वल चरित्र ही देखने का प्रयास करते हैं हम हमारी मानसिकता के आधार पर तय करना चाहते हैं। किंतु दर्पण का उद््देश्य यह है कि हमें अपने शरीर व चरित्र की नकारात्मकता को भी दिखाता है अत: उसे सुधारने का प्रयास करें। 'मैं कौन हूँ?' यह विचार अन्य सभी विचारों को नष्ट कर देगा और अंतत: स्वयं को भी मार डालेगा। यदि अन्य विचार उठें, तो उन्हें पूरा करने का प्रयास किए बिना, यह पूछना चाहिए कि यह विचार किसके लिए उठ रहा है। इससे क्या प्रभाव पड़ता है कि कितने विचार उठ रहे हैं? प्रत्येक विचार के उठने पर व्यक्ति को सतर्क रहना चाहिए और पूछना चाहिए कि यह विचार किसके लिए उठ रहा है। उत्तर होगा 'मेरे लिए'। यदि आप 'मैं कौन हूँ?' के बारे में पूछेंगे, तो मन अपने स्रोत पर वापस लौट जाएगा। जो विचार उठा था, वह भी डूब जाएगा। जैसे-जैसे आप इस प्रकार का अभ्यास अधिक से अधिक करेंगे, मन की अपने स्रोत के रूप में बने रहने की शक्ति बढ़ती जाएगी। समर्पण प्राप्त करने के दो उपाय हैं। एक है 'मैं' के स्रोत को देखना और उस स्रोत में विलीन हो जाना। दूसरा है, यह महसूस करना कि 'मैं स्वयं असहाय हूँ' मात्र ईश्वर ही सर्वशक्तिमान है और स्वयं को पूरी तरह से उस पर समर्पित करने के अतिरिक्त मेरे लिए पूर्ण रूप से उस पर समर्पित करने के अतिरिक्त मेरे लिए सुरक्षा का कोई दूसरा उपाय नहीं है? और इस प्रकार धीरे-धीरे यह विश्वास विकसित करना कि मात्र ईश्वर ही उपस्थित है और अहंकार मायने नहीं रखता। दोनों तरीके एक ही लक्ष्य की ओर ले जाते हैं। वास्तव में, पूर्ण समर्पण ज्ञान या मुक्ति का दूसरा नाम है। ईश्वर, गुरु और आत्मा एक ही हैं। जिस अवस्था को हम आत्म-साक्षात्कार कहते हैं, वह बस स्वयं होना है, कुछ भी जानना या कुछ बनना नहीं। अगर किसी ने आत्म साक्षात्कार कर लिया है, तो वह वही है, जो अकेला है और जो अकेला सदैव से रहा है। वह उस अवस्था का वर्णन नहीं कर सकता। वह मात्र वही हो सकता है। हम श्रेष्ठ शब्द के अभाव में आत्म-साक्षात्कार की बात शिथिलता से करते हैं। हमें बस इतना करना है कि चुप रहना है। शांति हमारा वास्तविक स्वभाव है। हम इसे बिगाड़ते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि हम इसे बिगाड़ना बंद करें। यह ठीक उसी प्रकार है कि जब आप यह मानते हैं कि आप को कोई रोग हो गया है और उस रोग को दूर करने के लिए आपको चिकित्सक की आवश्यकता है किंतु यदि आप स्वयं के स्वास्थ्य को अनदेखा कर देंगे तो आपकी व्याधि संक्रमण सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त हो जायेगा। अत: स्वयं के साथ न्याय करें। संबंध रूपी दर्पण आपको सही स्थिति का दर्शन कराता है उसे अनदेखा न करते हुए अपने विचार एवं व्यवहार में परिवर्तन लाने का प्रयास करें, क्योंकि स्वयं में सुधार लाना ही प्रकृति का नियम है। आपकी इस दुविधा को सुविधा में भी परिवर्तित करने का सरल एवं सहज उपाय परम पूज्य महर्षि महेश योगी जी ने प्रतिपादित किया है। भावातीत ध्यान के रूप जो जिसका नियमित, प्रतिदिन, प्रात: एवं संध्या को 10 से 15 मिनट का अभ्यास आपमें परिवर्तन की ओर प्रेरित करने का सशक्त सरलतम माध्यम सिद्ध होगा।



।।जय गुरूदेव जय महर्षि।।