संपादकीय

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ब्रह्मचारी गिरीश
संरक्षक संपादक

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। समस्त प्रकृति में आनंद बिखरा हुआ है किंतु हमारी चेतना सुप्त है। सर्वप्रथम हमें भीतर झांकना होगा, स्वयं को भीतर से प्रदूषण मुक्त करना होगा। स्वस्थ्य मन, मस्तिष्क में स्वस्थ्य विचार जन्म लेते हैं किंतु हम मात्र शरीर को ऊपर से ही सुन्दर एवं आकर्षक बनाने का प्रयास करते हैं। क्यों और किसके लिए, दूसरों के लिये? अत: अपनी सुप्त चेतना को भावातीत ध्यान के प्रतिदिन प्रात: एवं संध्या के समय नियमित 15 से 20 मिनट के अभ्यास से आप इस सुन्दर व आनंदित प्रकृति का दर्शन एवं अनुभव कर अपने जीवन को आनंदमय बनाने का प्रयास करें। ''क्योंकि जीवन आनंद है।''


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समर्पित को सम्मान

एक राज्य के राजा भोजन कर रहे थे। अनेक सेवक भोजन परोस रहे थे। एक पुराने सेवक ने जब राजा को सब्जी परोसी तो सब्जी के कुछ छींटे राजा के कपड़ों पर आ गये यह देख राजा क्रोधित हो गये तभी सेवक भयभीत हो गया और आगे बड़ा किंतु फिर वह वापस मुड़ा और अपने बर्तन की सारी सब्जी राजा पर ही फैंक दी अब तो राजा अत्यंत क्रोधित हो गया और बोला यह सब क्या है? मुझे मालुम है कि पहली बार सब्जी भूलवश मेरे कपड़ों पर गिर गई थी। परन्तु दूसरी बार तुमने जानकर मुझ पर सारी सब्जी फैंक दी, ऐसा क्यों किया? सेवक ने अत्यंत शांत भाव से राजा से कहा जब मेरे द्वारा आपको सब्जी परोसने पर भूलवश कुछ छींटे आपके कपड़ों पर आ गये तो मुझे समझ आ गया कि आप अवश्य ही मुझे दण्ड देंगे। फिर मैंने सोचा कि लोग कहेंगे कि राजा ने एक छोटी सी गलती पर अपने पुराने सेवक को दण्ड दे दिया। यह सोच कर मैंने बाकी सब्जी भी आप पर डालदी जिससे लोग आपको नहीं मुझे ही दुष्ट कहेंगे जिससे आपका अपयश नहीं होगा। सेवक के इस उत्तर में सेवक के गंभीर भावों का पता चला कि सेवक भाव कितना कठिन है और जो समर्पित भाव से सेवा करते हैं। उससे भी कभी न कभी गलती हो सकती है। फिर चाहे वह सेवक हो मित्र हो या परिवार का कोई सदस्य ऐसे समर्पित लोगों की गलतियों पर नाराज न होकर उनके प्रेम व समर्पण का सम्मान करना चाहिए। किसी घटना के बाद प्राय: हम सोचते हैं कि अगर अपनी बात को किसी और ढंग से रखते तो उसका श्रैष्ठ प्रभाव पड़ता। सदैव घटनाएँ घट जाने के बाद ही मनुष्य को इस प्रकार के विचार सहजता से आते हैं, यह अच्छी बात है। प्राय: हम सब अपने जीवन में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन देना चाहते हैं एवं हम सब परफेक्ट बनने का प्रयास करते हैं, किंतु हमें इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि परफेक्शन एक ऐसी धारणा है, जिसका कोई अंत नहीं है। समाज में आज श्रेष्ठता सिद्ध करने की निर्दयी प्रतियोगिता चल रही है। भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम के बचपन का एक सुंदर प्रसंग याद आता है। वह लिखते हैं कि एक रात्रि भोजन के समय उनकी माता ने पिता और उनके भाँजे की थाली में सब्जी और आंशिक जली हुई रोटी परोस दी। उस समय मेरी दृष्टि पिता की प्रतिक्रिया पर थी, लेकिन उन्होंने कुछ नहीं कहा। थोड़ी देर बाद माँ ने रोटी के जलने के बदले क्षमा माँगी। पिता ने सहजता से कहा 'मुझे तो जली हुई रोटी भाती है, तुम बिल्कुल चिंता मत करो।' मैंने उस रात पिता से सच्चाई जानने के लिए प्रश्न किया, 'क्या सच में आपको जली हुई रोटी भाती है?' प्रश्न सुनकर उन्होंने मुझे पास बिठाया और प्रेमपूर्वक समझाते हुए कहा कि 'देखो बेटा, जली हुई रोटी हृदय को नहीं जलाती, लेकिन तीखे बोल हृदय को अवश्य झुलसा जाते हैं।' व्यक्ति विचारता ही रहता है, कि बुद्धि, शक्ति, सम्पत्ति, सम्बंध होते हुए भी ऐसा क्या कारण है, कि विफलता दृष्टिगत होती है? यही है 'मैं' वाली हवा की विडम्बना। ये जन्म से मृत्यु तक व्यक्ति को सुख-शांति को भ्रमित कर हमें नकारात्मकता की ओर धकेलती रहती है। कहते भी हैं न- 'मैं की हवा जिसे लगी, उसे फिर न औषधि लगी, न आशीष लगा।' अहंकार आज हमारे जीवन का सबसे प्रभावशाली प्रेरक बिंदु है। जैसे अग्नि धुएँ के आवरण में छुपी होती है, उसी प्रकार हमारी प्रत्येक क्रिया अहंकार से घिरी होती है। किंतु अहंकार की बेड़ियों को जो तोड़ पाता है, वह आनंद के विश्व में प्रवेश कर पाता है। समस्त प्रकृति में आनंद बिखरा हुआ है किंतु हमारी चेतना सुप्त है। सर्वप्रथम हमें भीतर झांकना होगा, स्वयं को भीतर से प्रदूषण मुक्त करना होगा। स्वस्थ्य मन, मस्तिष्क में स्वस्थ्य विचार जन्म लेते हैं किंतु हम मात्र शरीर को ऊपर से ही सुन्दर एवं आकर्षक बनाने का प्रयास करते हैं। क्यों और किसके लिए, दूसरों के लिये? अत: अपनी सुप्त चेतना को भावातीत ध्यान के प्रतिदिन प्रात: एवं संध्या के समय नियमित 15 से 20 मिनट के अभ्यास से आप इस सुन्दर व आनंदित प्रकृति का दर्शन एवं अनुभव कर अपने जीवन को आनंदमय बनाने का प्रयास करें। ''क्योंकि जीवन आनंद है।''



।।जय गुरूदेव जय महर्षि।।