संपादकीय

ब्रह्मचारी गिरीश
संरक्षक संपादक

ईश्वर को अपने स्वरूप का बोध है पर जीव को नहीं, जिस कारण ईश्वर सृष्टि करता हुआ भी अकर्ता है निष्काम है अपने स्वरूप में स्थित है। ये गुण-धर्म हैं जिनके कारण ईश्वर और जीव में भेद है, वास्तव में एक ब्रह्म ही माया की उपाधि धारण कर ईश्वर बन जाता है वहीं ब्रह्म अविद्या की उपाधि धारण कर जीव बन जाता है। अत: जीव यदि अविद्या रूपी अज्ञान के बंधन को काट दे तो जीव भी तत्व से वही ब्रह्म है, यदि जीव अपने आत्मा का साक्षात्कार कर ले वह अपने सच्चिदानंद स्वरूप को प्राप्त हो जायेगा...!

एक आध्यात्मिक सूनापन लगता है, कोई शांत एवं सुखी नहीं दिखाई देता। इतनी हिंसा, इतने उपद्रव क्या भगवत्ता का प्रमाण देते हैं? इनका मूल जो है, वह तो चेतना है, उसे पकड़ा नहीं जा सकता। हमने प्रार्थना को पहले रख लिया है और परमात्मा को पीछे। प्रार्थना यानी माँग। हमने छाया को पहले रख लिया है और मूल को पीछे। छाया को पकड़ने चले हैं और मूल पकड़ में आता नहीं। एक कथा है जो इसका प्रमाण देती है। सुबह की धूप में घर के आँगन में एक बच्चा खेल रहा था और अपनी छाया को पकड़ने के प्रयास में जुटा था। वह अपनी छाया पर झपट्टा मारता, मगर छाया पकड़ में नहीं आती, तो रोता-चिल्लाता और पुन: झपट्टा मारता। उसकी माँ उसे समझाए जा रही थी कि बेटा, छाया पकड़ में नहीं आती! मगर वह मानता ही नहीं था। छाया सामने दिखाई पड़ रही, तो पकड़ में क्यों नहीं आएगी? यह तो रही हाथ भर की दूरी पर। तो वह फिर उसकी ओर सरकता, फिर पकड़ने का प्रयास करता, किंतु वह जैसे ही छाया की ओर सरकता, छाया भी आगे सरक जाती। द्वार पर एक फकीर आया। वह बच्चे की चेष्टा देखकर हँसने लगा। उसने उसकी माँ से कहा, क्या मैं अंदर आ सकता हूँ? मैं समझा सकता हूँ इस बच्चे को। माँ थक गई थी। उसने कहा, अवश्य आइए, सुबह से मुझे परेशान किए हुए है, काम भी नहीं करने देता। छाया पकड़ना चाहता है! छाया भी कहीं पकड़ी जाती है? फकीर ने कहा, पकड़ने का ढंग होता है। उसने बच्चे का हाथ लिया और उसके ही सिर पर रख दिया। शीघ्र उसकी छाया बदल गई। इधर बच्चे का हाथ सिर पर गया, उधर छाया भी पकड़ में आ गई। बच्चा खिलखिलाने लगा। अपने को पकड़ने से छाया पकड़ में आ गई। मूल को पकड़ा, तो छाया पकड़ में आ गई। यह गहरा सूत्र है उन सबके लिए, जो बाहर खोज रहे हैं। बाहर लोग जो खोज रहे हैं, वे सब छाया हैं। ईश्वर नाम का कोई व्यक्ति कभी नहीं मिलेगा। ईश्वर आपकी ही निर-अहंकार भाव-दशा का नाम है! वह कोई व्यक्ति नहीं, वह कोई आकाश में स्वर्ण-सिंहासन पर विराजमान जगत का शासक नहीं। परमात्मा है आपकी ही वह विशुद्ध स्थिति, जब अहंकार की जरा सी भी मात्रा शेष नहीं रह जाती। ईश्वर में शुद्ध सतोगुण पाया जाता है इसलिए ईश्वर सर्वज्ञ है और जीव अल्पज्ञ है, जितना सतोगुण अधिक होगा उतना आत्मा/ब्रह्म स्वरूप का बोध होगा और ईश्वर तो शुद्ध सतोगुण माया से परिपूर्ण है जिस कारण ईश्वर अनन्त ज्ञानी एवं सर्वज्ञ है पर जीव में मलिन रज-तम भी है अत: जीव अल्प ज्ञानी है। शक्ति का अर्थ माया भी होता है और माया ईश्वर के अधीन होने से ईश्वर माया से कुछ भी कर सकता है इसीलिए ईश्वर सर्व शक्तिमान है पर जीव माया के अधीन होने से अल्प शक्ति वाला है। जीव अनेक हैं ईश्वर एक है क्योंकि ब्रह्म जब माया द्वारा सृष्टि रचना, पालन व संहार करता है तो वह ईश्वर कहलाता है और माया एक है अत: ईश्वर भी एक है पर जीव अनेक हैं क्योंकि माया अनेक/अनंत अविद्या रूपी स्वरूपों को प्रकट करती है। इन्हीं अविद्या में ब्रह्म का प्रतिबिंब पड़ने से अनेक/अनंत जीव प्रकट होते हैं इसलिए जीव अनेक/अनंत हैं पर ईश्वर एक है। जीव, ईश्वर और माया के अधीन है स्वतंत्र नहीं है पर ईश्वर पूर्णत: स्वतंत्र है, जीव, माया के तीन गुणों के अधीन होने से स्वतंत्र नहीं है। जब तक वह अपने वास्तविक स्वरूप आत्मा का साक्षात्कार न कर ले तब तक जन्म मृत्यु के बंधन में बंधा हुआ पराधीन है पर ईश्वर किसी के अधीन नहीं है ईश्वर सदैव अपने आत्म स्वरूप में स्थित रहता है। जीव को अपना वास्तविक स्वरूप, आत्मा का बोध न होने से जीव अपने स्वरूप से अनभिज्ञ है। उसका स्वरूप उसके लिए परोक्ष है पर ईश्वर में शुद्ध सतोगुण होने से ईश्वर स्वयं के ब्रह्म/आत्म स्वरूप को जानता है पर जीव नहीं जानता। जीव ईश्वर के समान पूर्णत: सामर्थ्यवान नहीं है, ईश्वर, माया को अपने अधीन रखते हुए असाधारण कार्य कर सकता है, प्रकृति के नियमों से ऊपर के कार्य कर सकता है। जीव, माया के अधीन होने से प्रकृति के सभी नियमों में बंधा हुआ है पर ईश्वर असीम सामर्थ्यवान है क्योंकि माया/शक्ति ईश्वर के अधीन है। ईश्वर सर्वव्यापक है पर जीव सीमित है, एक स्थान पर एक समय में ही रह सकता है पर ईश्वर प्रत्येक समय, प्रत्येक स्थान में विद्यमान है, जीव सर्व व्यापी नहीं है। माया के सीमित दायरे में है क्योंकि जीव अनेक हैं निश्चित काल, देश, अवस्था, परिस्थिति के अधीन है पर ईश्वर माया पति होने से सर्व व्यापी है पहले शुद्ध ब्रह्म माया के साथ मिलकर ईश्वर का रूप धारण करता है पश्चात् जीव जगत में परिवर्तित हो जाता है तो भी ईश्वर अपने ऐश्वर्य अस्तित्व में बना रहता है। ब्रह्म का शुद्ध सतोगुणी माया पर पड़ने वाला प्रभाव चैतन्य ईश्वर है इसीलिए ईश्वर सतोगुणी माया उपाधि वाला है और स्वरूप से ब्रह्म या आत्मा ही है। ईश्वर को अपने स्वरूप का बोध है पर जीव को नहीं, जिस कारण ईश्वर सृष्टि करता हुआ भी अकर्ता है निष्काम है अपने स्वरूप में स्थित है। ये गुण-धर्म हैं जिनके कारण ईश्वर और जीव में भेद है, वास्तव में एक ब्रह्म ही माया की उपाधि धारण कर ईश्वर बन जाता है वहीं ब्रह्म अविद्या की उपाधि धारण कर जीव बन जाता है। अत: जीव यदि अविद्या रूपी अज्ञान के बंधन को काट दे तो जीव भी तत्व से वही ब्रह्म है, यदि जीव अपने आत्मा का साक्षात्कार कर ले वह अपने सच्चिदानंद स्वरूप को प्राप्त हो जायेगा...! इसको पढ़ने, समझने एवं धारण करना कठिन अवश्य है किंतु असंभव नहीं। परमपूज्य महर्षि महेश योगी जी सदैव मानवजाति को इस सन्देश से प्रेरित एवं प्रोत्साहित करते रहे कि "जीवन संघर्ष नहीं है"- "जीवन तो आनंद है" हम सभी स्वयं में ईश्वर का दर्शन कर सकते हैं क्योंकि वह हमारे भीतर ही तो है और उसका दर्शन तब ही हो सकता है जब हम स्वयं को उनके सान्निध्य के लिये प्रेरित करें एवं इस प्रेरणा और साधना का एक सरलतम उपाय भी हम सबको दिया है महर्षि महेश योगी जी ने "भावातीत ध्यान-योग" के रूप जिसका प्रतिदिन एवं नियमित रूप से 10-15 मिनट का प्रात: एवं संध्या के समय अभ्यास करने से आप अपने जीवन के लक्ष्य के प्रति शनै:-शनै: बढ़ते जाते हैं और एक दिन हमारा जीवन संघर्ष से आनंद के प्रति गति को प्राप्त करने का अनुभव प्रदान करता है। समय अवश्य लग सकता है किंतु प्रयास अवश्य प्रारंभ करें क्योंकि जीवन आनंद है।
।।जय गुरूदेव जय महर्षि।।