आवरण कथा
‘ न्यन मूंदे मन शान्त हो भीतर जब झाँकें, शून्य में ध्वनि गूँजे सत्य का पथ ताकें।
श्वास की लय में अस्तित्व का बोध हो, मैं से परे हो ही चैतन्य का ज्ञान हो।।
’’

प्राचीन समय में आज की तरह स्कूल नहीं होते थे, बल्कि गुरुकुल प्रणाली थी। उस समय बालकों के थोड़ा सीखने-समझने लायक होने पर गुरु के आश्रम में भेजा जाता था। शिक्षा पूरी होने तक उन्हें आश्रम में ही रहना होता था। वहाँ बच्चे चिंतारहित होकर विद्याध्ययन करते थे। आश्रम का वातावरण उत्तम होने से बच्चों के मस्तिष्क का स्वस्थ विकास होता था। गुरु शिष्यों को अपने बच्चों के समान स्नेह देते थे। शिष्य भी गुरु को पिता तथा गुरुपत्नी को माता का दर्जा देकर उनके प्रति पूरी निष्ठा और श्रद्धा रखते थे। विनम्रता और भावासिक्त श्रद्धा उस पद्धति का प्राण थी। आध्यात्मिक क्षेत्र में गुरु से मिलने वाली विद्या और संस्कार का महत्व और भी असाधारण है। उसे एक जगह तो शिक्षक का दर्जा दिया गया है, दूसरे स्तर पर ब्रह्मा-विष्णु तथा महेश तीनों के समकक्ष बताया गया है। कारण यह है कि गुरु ही साधक की ज्ञानज्योति जगाता है। उसे शिष्य की आँख और दृष्टिक क्षमता भी बताया गया है। साधना जगत में प्रवेश कराने वाले जनक, पालन करने वाले और अज्ञान अंधकार को नष्ट करने की क्षमता रखने के कारण उसे ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश उचित ही कहा गया है।
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